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Sunday, 13 April 2025

गोरखालैंड विषयक विमर्श में केंद्र सरकार की सक्रियता: पश्चिम बंगाल सरकार की अनुपस्थिति पर बहस

गोरखालैंड की राज्य की मांग, जो भारतीय संघीय ढांचे में एक सतत संवेदनशील और बहुआयामी विमर्श का विषय रही है, एक बार पुनः राष्ट्रीय चर्चाओं के केंद्र में है। हाल ही में भारत सरकार द्वारा आयोजित एक उच्च स्तरीय संवादात्मक बैठक में इस जटिल राजनीतिक और सामाजिक प्रश्न पर विचार-विमर्श किया गया। इस महत्वपूर्ण विमर्श में अनेक प्रतिनिधि सम्मिलित हुए, किंतु पश्चिम बंगाल सरकार की अनुपस्थिति ने राजनीतिक संतुलन एवं संघीय समन्वय पर गहरे प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। बैठक का प्रमुख उद्देश्य गोरखा समुदाय से संबंधित दीर्घकालिक सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के समाधान हेतु व्यावहारिक नीति-पहल को गति देना था। गोरखालैंड आंदोलन का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य गोरखालैंड की मांग का उद्गम 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में दिखाई देता है। सन् 1907 में लेबोंग और कर्सियांग क्षेत्र के कुछ स्थानीय प्रतिनिधियों ने ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन से एक पृथक प्रशासनिक इकाई की याचना की थी। यद्यपि यह आंदोलन प्रारंभिक अवस्था में सीमित रहा, किंतु 1980 के दशक में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) के सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में यह आंदोलन हिंसात्मक स्वरूप धारण कर एक व्यापक जनांदोलन बन गया। 1986 से 1988 के मध्य हुए इस सशस्त्र आंदोलन के पश्चात केंद्र सरकार ने दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (DGHC) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य आंशिक स्वायत्तता प्रदान करना था। तथापि, यह तदर्थ समाधान गोरखा समुदाय की पृथक राज्य की मूल संवैधानिक मांग को संतुष्ट नहीं कर सका। 2007 में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJM) के उदय के साथ आंदोलन ने पुनः गति प्राप्त की। 2017 में यह असंतोष चरम पर पहुँच गया, जब GJM ने अनिश्चितकालीन हड़ताल की घोषणा की और क्षेत्रीय अस्थिरता व्यापक स्तर पर दृष्टिगोचर हुई। वर्तमान वार्ता की संरचना और राज्य सरकार की पुनरावृत्त अनुपस्थिति नई दिल्ली में संपन्न हुई इस विमर्शात्मक बैठक में केंद्रीय गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी, दार्जिलिंग और कालिम्पोंग के निर्वाचित जनप्रतिनिधि, विविध गोरखा संगठनों के पदाधिकारी, तथा सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी सम्मिलित थे। इस मंच का उद्देश्य था गोरखा समुदाय से संबद्ध बहुस्तरीय संकटों — जैसे कि प्रशासनिक उपेक्षा, आर्थिक पिछड़ापन और सांस्कृतिक उपेक्षा — का समाधान तलाशना। हालांकि, पश्चिम बंगाल सरकार की अनुपस्थिति ने इस पहल की वैधता एवं प्रभावशीलता को चुनौती दी है। राज्य सरकार द्वारा गोरखालैंड की मांग को राजनीतिक औचित्य से रहित ‘प्रतिक्रियावादी स्टंट’ निरूपित करना एक दीर्घकालिक रणनीति रही है, जिससे न केवल गोरखा समुदाय में असंतोष व्याप्त होता है, बल्कि केंद्र-राज्य सहयोग की संभावनाएं भी क्षीण हो जाती हैं। गोरखा समुदाय का अंतर्विरोध और आकांक्षाएं गोरखा समुदाय की राज्य गठन की मांग मात्र एक प्रशासनिक पुनर्गठन का प्रश्न नहीं है, अपितु यह उनकी ऐतिहासिक, भाषाई, और सांस्कृतिक अस्मिता की पुनःस्थापना की आकांक्षा है। दशकों से यह समुदाय अपनी विशिष्ट पहचान और सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत रहा है। गोरखा युवाओं को रोजगार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, तथा अवसंरचनात्मक विकास के अवसरों की घोर कमी का सामना करना पड़ता है। पर्यटन-आधारित अर्थव्यवस्था आंदोलन की अस्थिरता से बार-बार प्रभावित होती रही है। ऐसी परिस्थिति में केंद्र सरकार की यह पहल संभाव्य नीतिगत हस्तक्षेप के लिए आधार तैयार कर सकती है, जो इस समुदाय की आकांक्षाओं के अनुरूप हो। संभावित समाधान की रूपरेखा बैठक में सहभागी प्रतिनिधियों ने स्पष्ट किया कि गहन संवाद, परस्पर सम्मान और राजनैतिक इच्छाशक्ति ही इस लंबे समय से अनसुलझे प्रश्न का शांतिपूर्ण समाधान सुनिश्चित कर सकते हैं। यह प्रस्तावित किया गया कि गोरखालैंड से संबंधित सभी पहलुओं की समीक्षात्मक पड़ताल के लिए एक स्थायी उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जाए, जो समयबद्ध ढंग से अपनी संस्तुतियाँ प्रस्तुत करे। इसके अतिरिक्त, गोरखा युवाओं को सशस्त्र बलों में भर्ती, तकनीकी शिक्षा, और स्वरोजगार हेतु विशेष प्रावधानों के माध्यम से सामाजिक एकीकरण और आत्मनिर्भरता की दिशा में सशक्त किया जा सकता है। निष्कर्ष: एकजुटता और नीतिगत प्रतिबद्धता की आवश्यकता गोरखालैंड प्रश्न पर दशकों से अस्थिर चर्चाएं होती रही हैं, किंतु उनके निष्कर्ष प्रायः नीतिगत अस्थिरता के शिकार हो जाते हैं। भारत सरकार द्वारा की गई नवीनतम पहल सराहनीय है, किंतु जब तक राज्य सरकार इस संवाद में सहभागी नहीं होगी, तब तक कोई समग्र समाधान असंभव प्रतीत होता है। भारत के संघीय ढांचे में गोरखा समुदाय का स्थान अभिन्न है, और उनकी समस्याओं का समाधान केवल राजनीतिक दायित्व नहीं, अपितु संवैधानिक और नैतिक उत्तरदायित्व भी है। अब समय आ गया है कि सभी पक्ष राजनीतिक सीमाओं और वैचारिक पूर्वग्रहों से ऊपर उठकर इस दीर्घकालिक प्रश्न का समाधान करें — ताकि एक समावेशी, न्यायोचित, और बहुवचनात्मक भारत की परिकल्पना साकार हो सके।

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