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Friday, 2 May 2025

बहु-वर्षीय अध्ययन में पॉल्ट्री सेवन और पाचन तथा हृदय रोगों के मध्य जटिल सहसंबंध

पॉल्ट्री उत्पादों, विशेषतः ब्रॉयलर चिकन, के दीर्घकालिक और अधिक मात्रा में सेवन से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को लेकर वैश्विक स्तर पर गहन वैज्ञानिक अनुसंधान जारी है। हाल ही में संपन्न एक बहु-वर्षीय समष्टिगत अध्ययन (cohort study) में यह स्पष्ट संकेत प्राप्त हुए हैं कि नियमित रूप से अत्यधिक मात्रा में पॉल्ट्री उत्पादों का सेवन गेस्ट्रोइंटेस्टाइनल कैंसर और कार्डियोवैस्कुलर रोगों की संभावना को सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण स्तर तक बढ़ा सकता है। 🧪 अध्ययन की रूपरेखा एवं प्रमुख निष्कर्ष इस अध्ययन में पाँच वर्षों तक 1,00,000 से अधिक प्रतिभागियों की आहार संबंधी आदतों, जीवनशैली, और चिकित्सा इतिहास का गहन परीक्षण किया गया। डेटा विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकला कि सप्ताह में चार या उससे अधिक बार पॉल्ट्री उत्पादों का सेवन करने वाले व्यक्तियों में गेस्ट्रिक, कोलोनिक और हेपेटिक कैंसर का जोखिम तुलनात्मक रूप से अधिक पाया गया। साथ ही, इन उपभोक्ताओं में एथेरोस्क्लेरोसिस और मायोकार्डियल इन्फार्क्शन जैसे हृदय संबंधी विकारों की घटनाएँ भी उल्लेखनीय रूप से अधिक रहीं। 🧬 जैवरासायनिक यांत्रिकी: संभावित रोगोत्पत्ति तंत्र हीट-इंड्यूस्ड कार्सिनोजेनिक यौगिक: उच्च तापमान पर चिकन पकाने से उत्पन्न हेटेरोसाइक्लिक अमाइन्स (HCAs) और पॉलिसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन्स (PAHs) डीएनए स्तर पर उत्परिवर्तन कर कैंसरजनन को प्रेरित करते हैं। हार्मोन और एंटीबायोटिक प्रदूषण: औद्योगिक पॉल्ट्री फार्मों में प्रयुक्त सिंथेटिक हार्मोन और एंटीबायोटिक के अवशेष मानव अंतःस्रावी प्रणाली में अव्यवस्था उत्पन्न कर सकते हैं, जिससे दवा प्रतिरोधकता और चयापचय विकारों की संभावना बढ़ती है। डाइटरी असंतुलन: उच्च मात्रा में पॉल्ट्री उपभोग से आहार संतुलन में व्यवधान आता है, विशेषतः आहार रेशे की कमी और ट्रांस फैट, सोडियम की अधिकता सूजन और मेटाबोलिक सिंड्रोम को जन्म देती है। 🦠 पाचनतंत्रीय कर्क रोगों में पॉल्ट्री का योगदान म्यूकोसल क्षति: अधिक अम्लस्राव और अधपके चिकन उत्पाद आंतों की म्यूकोसल परत को क्षतिग्रस्त करते हैं, जिससे कर्कजनन हेतु संवेदनशील सूक्ष्म पर्यावरण बनता है। कॉलोनिक कार्सिनोजेनेसिस: HCAs और PAHs जैसे यौगिक बड़ी आंत की कोशिकाओं में आनुवंशिक परिवर्तन करते हैं, जिससे कैंसर का खतरा बढ़ता है। आंत्र डिसबायोसिस: अत्यधिक प्रोटीन सेवन आंतों के माइक्रोबायोटा में असंतुलन उत्पन्न करता है, जो कैंसरजनक प्रक्रियाओं को बढ़ावा देता है। ❤️ हृदय रोगों में संभावित योगदान डिस्लिपिडेमिया: ब्रॉयलर चिकन, विशेषतः डीप-फ्राइड स्वरूपों में, सैचुरेटेड फैट की अधिकता के कारण एलडीएल कोलेस्ट्रॉल बढ़ाता है, जिससे धमनियों में रुकावट की संभावना बढ़ती है। सोडियम अधिभार: प्रोसेस्ड चिकन उत्पादों में अत्यधिक सोडियम उच्च रक्तचाप, स्ट्रोक, और दिल के दौरे का जोखिम बढ़ा सकता है। एंडोथीलियल डिसफंक्शन: प्रो-इंफ्लेमेटरी यौगिकों के कारण एंडोथीलियल कोशिकाएं प्रभावित होती हैं, जिससे हृदयवाहिनी तंत्र की कार्यक्षमता घटती है। ✅ निवारक उपाय और सुझाव मिताहारी सेवन: पॉल्ट्री सेवन को सप्ताह में अधिकतम दो बार तक सीमित रखें और डीप फ्रायिंग के बजाय स्टिमिंग, बॉयलिंग, या एयर फ्राइंग अपनाएं। वैकल्पिक प्रोटीन स्रोत: दालें, चना, मूंग, टोफू, पनीर और अंकुरित अनाज जैसे शाकाहारी स्रोत पोषणप्रद और स्वास्थ्य-संवर्धक होते हैं। प्रोसेस्ड फूड से परहेज़: ट्रांस फैट, एडिटिव्स और अधिक सोडियम युक्त प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों से दूरी बनाए रखें। फार्म स्रोत का सत्यापन: स्थानीय, ऑर्गेनिक या फ्री-रेंज पॉल्ट्री उत्पादों को प्राथमिकता दें, जिससे हार्मोनल और एंटीबायोटिक अवशेषों का जोखिम कम हो सके। समग्र जीवनशैली: नियमित व्यायाम, तनाव नियंत्रण, नींद का संतुलन और नशा मुक्त जीवनशैली हृदय और पाचन स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण भारत में शहरीकरण और उपभोक्तावाद के चलते पॉल्ट्री सेवन में तीव्र वृद्धि हुई है, किंतु जनस्वास्थ्य शिक्षा और चेतना में यह वृद्धि तुलनात्मक रूप से पीछे रह गई है। आयुर्वेदिक दृष्टिकोण सात्त्विक, ऋतु-अनुकूल और संतुलित आहार को प्राथमिकता देता है, जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए अनुकूल माना गया है। वैज्ञानिक प्रमाण और परंपरागत ज्ञान का एकीकृत दृष्टिकोण जनस्वास्थ्य नीति में आवश्यक है। निष्कर्ष यद्यपि पॉल्ट्री प्रोटीन का सुलभ स्रोत है, परंतु इसके अत्यधिक और अनियंत्रित सेवन से उत्पन्न दीर्घकालिक स्वास्थ्य जोखिमों को नकारा नहीं जा सकता। वैज्ञानिक साक्ष्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि उच्च मात्रा में पॉल्ट्री सेवन गेस्ट्रोइंटेस्टाइनल कैंसर और कार्डियोवैस्कुलर रोगों के लिए एक जोखिम कारक बन सकता है। अतः समुचित आहार विवेक, स्वास्थ्य-साक्षरता और निवारक रणनीतियाँ ही इस संभावित सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती से निपटने में सहायक हो सकती हैं।

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